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सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

hindibhashi hone ka dard



मित्रो ब्लोग लेखन मे मैने अभी अभी कदम ही रखा है. आप सब से अपने बहुत से विचार सांझा करने है.तकनीकी  रुप से भी मै पुरी तारह  सक्षम नही हू. मै पश्चिम बंगाल के गांवनुमा इलाके मे रहता हूं. बंग्लाभाशियों   के अलावा काफी संख्या मे बिहारी तथा झारखंडी  भी रहते है. इसके अलावा उडिया, पन्जाबी आदि भी रह्ते है.हिन्दीभाषी मुसल्मानो कि संख्या भी अछि  खासी है. आपस मे भाइचारा भी है. पीढियों   से लोग एक दुसरे के परिवारों को जानते  है.पर्व त्योहार भी सब साथ् साथ् मनाते है.दुर्गापूजा यहा सब से बडा पर्व है जो खूब धूम धाम से मनाया जाता है. पुजा पंडाल मे हिन्दुओ के साथ् साथ् मुस्लिम महिला एवं पुरुषो कि संख्या भी अच्छी  खासी होती है. अधिकतर हिन्दी भाषी बंगला भाषा आराम से बोल समझ लेते है .इसके बाबजूद आप अपने दफ्तर मे हो, बैंक मे हो, पोस्ट ओफ्फिस मे या फिर अपने घर के पड़ोस   मे ही क्यों    न हो अगर वहा कोइ बंग्लाभाशी है चाहे वोह कितना ही  पडा  लिख्हा  क्यों  न हो बातचित मे वह आप को छोटा    और अपने आप को बडा दिखाने कि कोशिश करेगा. 


कभी कभी आपको अनुभव होगा की आप अपने ही देश में पराये है. सच पूछिये तो ऐसा लगता है जैसे आप यहाँ द्वितीय श्रेणी के नागरिक है. किसी की एक टिपनी  आप का आत्मविश्वास तोड़ने के लिए काफी है. अगर आप अति उत्साहित हो कर किसी सामाजिक काम में अपना योगदान देना चाहेंगे तो वह भी आपको निरुत्साहित किया जायेगा. आप के सामने ही सामने एक अदना सा आदमी चिल्ला चिल्ला कर आपके हिन्दीभाषी होने का मजाक उडाएगा और आप मजबूरी बस उनके सामने सीखे निपोरेंगे या फिर खिसियानी हंसी  हस कर रह जायेंगे. आप अग़र किसी बंगलाभाषी मित्र के घर जायेंगे तो पहले वह अपने माता पिता से परिचय कराएगा फिर आप की तरफ से उन्हें सफाई देगा जो इस तरह होगा की मेरा मित्र है तो हिंदी भासी लेकिन इसके बाबजूद अच्छा है. और आप की समझ में नहीं आयेगा की आप खुश हो या रोये.

उनकी नौकरानी तक जो आप के पड़ोस के घरो में काम करती है वह  हमेशा आपको   या  आपकी पत्नी को देखते ही चीखने  लगेगी  " पता नहीं ये हिन्दुस्तानी ( बंगाल में हमें इसी नाम से पुकारा जाता है ) पता नहीं कहा से आगये है और सरे इलाके को गन्दा कर दिया है. " सब से बुरा पहलू तो इसका यह होता है की जिनके यहाँ ये काम करते है उनका भी पूरा समर्थन इन काम वाली औरतो  के साथ होगा है. अगर आप कभी इनकी सिकायत उनसे करते है  तो उनका सपाट सा उत्तर होता है के आप इनके मुह लगते ही क्यों है  या फिर कहेंगे adjust करना करना सीखिए .

अपने ही देश में परायेपण का अहसास बड़ा ही दिल दुखाने वाला होता है .  

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

dhanyabaad

आप सभी मित्रो को बहुत बहुत धन्यवाद जिन्होंने मेरे इस ब्लॉग को पढ़ा . मुझे किताबे पढने का शौक तो बचपन से था. लोटपोट,पराग , राजा भैया , बालक , इंद्रजाल कामिक्स जैसी सभी पत्रिकाए पढता था . इसके अलावा बाल पाकेट बुक्स के बाल उपन्यास भी बड़े चाव से पढता था. फ़िल्मी पत्रिकाओ में माधुरी जो मेरे पड़ोस में आता था तथा मेरे घर में धर्मयुग आया करता था उन सभी पत्रिकाओ के एक एक शब्द चाट जाता था. हलाकि मेरी उम्र उस वक्त मुस्किल से दस या ग्यारह बरस रही होगी .औरं कुछ बड़ा हुआ  तो इब्ने सफी की बिनोद hamid सीरिज का चस्का लगा. फिर तो गुलशन नंदा, रानू, प्रेम बाजपाई, बेद प्रकाश शर्मा अदि के उपन्यास खूब पढ़ा . पंद्रह की उम्र में प्रेमचंद का उपन्यास गोदान पढ़ा . फिर तो साहित्यिक  किर्तियो को पढने का ऐसा चस्का लगा जो आज तक कायम है.
इसके साथ साथ चित्रकारी भी चल रही थी. सच पूछिये तो मेरा पहला प्यार चित्रकारी ही है. फिर सनक चदा कार्टून बाने का . इस विधा ने मुझे थोड़े बहुत पैसे और नाम भी दिए. कलकत्ते से छपने वाली  सन्मार्ग दैनिक ने मेरे राजनितिक कार्टून को पहली बार प्रकाशिक किया. इसके लिए मुझे करीब साल भर इंतज़ार करना पड़ा . मेरा पहला कार्टून फीचर लोटपोट में प्रकाशित हुआ .सन्मार्ग में प्रकाशिक होने वाले एक कॉलम के लिए पांच रुपये मिलते थे जब की तीन कॉलम के कार्टून के लिए मात्र पन्दरा रुपये . उस समय मै पूरी तरह से बेकार था और इन पैसो से रंग ब्रुश चैनीस  इंक और हिंदी के अन्य पत्र - पत्रिकाए खरीदता था. कोड में खाज ये हो गया की फिर मुझे नाटक में abhinai करने का शौक चर्र्या . एक तो बेकारी फिर ये बेकार के शौक . मेरे पिताजी के retirement में कुछ एक बरस रह गए थे और वे मेरे लिए bahut चिंतित रहने लगे. लेकिन मुझे तो बस सनक लगी थी ये सब करने की . दुनियादरी  तो मुझेमे थी ही नहीं न ही आज आ  पाई है . पिताजी को उच्चा रक्तचाप हो गया तथा चार महीने की बीमारी में माँ ने भी साथ छोड़ दिया.इसी दौरान मेरी शादी हो गई. सब कुछ इतना अचानक , मात्र दो महीने में हो गया की मै कुछ समझ भी नहीं पाया.
कला साहित्य andar कही दब गया था जो जब तब उंदर से dhadhe मारता रहता था. हा मैं पढना नहीं छोड़ा. मेरी नौकरी कोल इंडिया के एक सब्सिडरी कंपनि  इ.सी.एल  में लग गई. जिंदगी की गाड़ी कुछ पटरी पर आ gai.
अब आप सभी के उत्साह बरदान से वापस साहित्य और ब्लॉग की दुनिया में वापस आ रहा हूँ . आशा है आप सभी दोस्तों का सहयोग इसी तरह मिलता रहेगा.